करनैलगंज(गोंडा)। रोज़ा भूख व प्यास बरदाश्त करने का नाम नहीं है, बल्कि अपनी ख्वाहिशात पर काबू पाने का नाम है। इस माहे मुकददस में ज्यादा मुस्तहिक्कीन की मदद करें और अजीज व अकारीब को अपनी खुशियों में शामिल करें। दारुल उलूम यतीमखाना सफविया के सरबराहे आला सैय्यद मुहम्मद शुएबुल अलीम बक़ाई बताते हैं। माहे रमजान में रोजा रखने को अन्य समाज के अधिकतर लोग केवल दिन भर उपवास रहने के नाम से जानते हैं। लेकिन यह उपवास क्यों रखा जाता है कम लोग ही जानते हैं। जबकि रोजा रखने से व्यक्ति दृंढ़ संकल्पित हो जाता है और बुराइयों से दूर रहता है। मेडिकल साइंस के लिहाज से रोजा शरीर की तमाम बीमारियां खत्म कर देता है। 30 दिनों का रोजा कई प्रकार की बीमारियों का इलाज है। डॉक्टर बताते हैं कि पेट ही बीमारियों का सबसे बड़ा घर होता है। जो रोजा रखने से सही हो जाता है। रोजा दरअसल एक इम्तहान है। यह सिर्फ भूखे रहने का नाम नहीं है। बल्कि आंख, कान, हाथ व पैर पूरे जिस्म को नियंत्रित रखने का माध्यम है। जब मोमिन बंदे ने 30 दिन तक जुबान को झूठ से रोका, हाथ व पैर को बुराइयों के तरफ जाने से रोका, आंखों को बुरी निगाह से रोका, कान को गीबत (चुगली) बुरी व गंदी बाते सुनने से रोका तो 30 दिनों में बुराइयों को छोड़ देने की आदत हो जाती है। उन्होंने कहा कि रमजान का 27 वां रोजा सबसे बड़ा रोजा माना है। पवित्र माह माहे रमजान के रोजे का इनाम खुशी का दिन यानी ईद अता करता है। इस दिन व माहे रमजान में मोमिन रोजेदार जो भी नेक दुआ मांगता है। खुदा उसे कुबूल करता है। इस माह खासकर गरीबों की मदद की जाती है। रोजेदारों का ऐहतराम सभी मजहबों के लोग करते हैं। सबसे बड़ा व अफजल रोजा 27वां रोजा होता है। जिसे अनेक समुदाय के लोग भी रखते हैं। रोजा रखने से खुदा से नजदीकी हासिल होती है। लोग सतर्कता के साथ त्योहारों की खुशियां अमल में लाएं। तथा सरकार के निर्देशों का पालन करें। आपसी भेदभाव मिटाकर भाईचारे का संदेश देते हुए इस मुबारक रमजान व ईद का त्योहार मनाएं।