मेरी सुलगी हुई कुछ सांसें, यूं ही नहीं उठा था धुआं

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चण्डी दत्त स्मृतियों में
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बात वर्ष 1994 ईसवी की है..मैं सूचना विभाग के समाचार संभाग में अखबारों से पिछले दिन हुई कवि गोष्ठी की रिपोर्टिंग काट रहा था..अचानक से एक सुदर्शन युवक आकर वही अखबार मेरे हाथ से लेने लगा जो मैं पढ़ रहा था..मुझे अजीब लगा..और हम दोनों उस अखबार के लिये लगभग लड़ गये..वह युवक बोला ‘यह कचहरी मोकल पुरियों से भरी पड़ी है अभी दो दर्जन लोगों को बुलाकर लाता हूँ तब तुम्हें बताता हूँ ‘
मैं चौंककर बोला..’किसको बुलाओगे जिसे मैं नही जानता..?’
वे बोले ‘राजेश मोकलपुरी ‘
मैं मुस्करा कर रह गया..उन दिनों मैं राजेश मोकलपुरी के नाम से कविताएँ लिखता था..छोटे बड़े अखबारों में कुछ कविताएँ छप भी चुकी थीं.. लेकिन जनपद में नाम उछला था एक विवाद से..दरअसल शिवाकान्त मिश्र विद्रोही के विरुद्ध एक लम्बा चौड़ा आलेख लिखा था जो ‘प्रकृति उपहार’ में छपा था..शिवाकान्त जी उस समय सत्तू पानी लेकर मुझे तलाश रहे थे..और जनपद के लगभग सभी ख्याति प्राप्त साहित्यकारों से मेरे विषय में पता कर रहे थे..दादा सुरेश मोकलपुरी से कह रहे थे कि किसी तरह उसका खण्डन छपवा दो..उस प्रसंग से मेरी छवि झगड़ालू व्यक्ति की हो गयी थी और उसी प्रभाव में वह युवक मेरा नाम बोल गया था..मैं बोला..”भैया राजेश मोकलपुरी तो मैं ही हूँ आप कौन से राजेश मोकलपुरी को बुलाने वाले हो..और आपका क्या नाम है..?”

वे थोड़ा सकुचाये फिर बोले ‘मैं चण्डी दत्त शुक्ल सागर हूँ ..एक रिपोर्टिंग भेजी थी इस अखबार में वही देखने आया था”

अब चौंकने की बारी मेरी थी.. दरअसल ‘कादम्बिनी’ में मैं चण्डी दत्त की कहानी ‘नर वाहन’ पढ़ चुका था और बहुत प्रभावित था ..तुरंत गले लगाया और बोला- ‘यार तुम दिल में रहने वाले हो..झगड़ा काहे कर रहे हो’..फिर तो हमारी बैठकी अक्सर होने लगी..

चण्डी दत्त का जन्म १५ अगस्त १९७५ ईसवी को पण्डित जानकी शरण शुक्ल के यहाँ सदर तहसील के गाँव झौहना में हुआ था..जब वे ढाई वर्ष के ही थे कि उनकी माँ की मृत्यु कैंसर बीमारी की वजह से हो गयी थी..पिताजी ने दूसरा विवाह किया..पर चण्डी दत्त पर उनका स्नेह कम नही हुआ..’कथा विम्ब’ पत्रिका मुम्बई में मधु अरोड़ा को दिये अपने साक्षात्कार में चण्डी ने बताया..’पिता का शरीर भले पुरष का था पर उनका दिल मां का था’..चण्डी दत्त अपने मां बाप की सबसे छोटी सन्तान थे..पहले दो बड़ी बहनें फिर एक बड़ा भाई..फिर चण्डी दत्त..मां की मृत्यु के बाद बड़े भाई की भी अचानक से मृत्यु हो गयी.. चूंकि बहनें बड़ी थीं सो चण्डी को पालने पोषने का काम बहनों ने अपने ऊपर ले लिया..चण्डी दत्त का परिवार पौरोहित्य से जुड़ा था और बहुत कर्मकाण्डी था..चण्डी दत्त अभी चार वर्ष के ही थे कि उनकी बहनें बचपने में ही व्याह कर बिदा कर दी गयीं.. अब चण्डी दत्त निपट अकेले थे..पिता पण्डित जानकी शरण शुक्ल, शास्त्री महाविद्यालय गोण्डा में पुस्तकालयाध्यक्ष थे और चण्डी दत्त चार वर्ष की उम्र में ही पुस्तकों से खेलने पुस्तकालय आ गये थे..चण्डी दत्त अक्सर कहते थे ‘मैने अक्षर ज्ञान और पुस्तकें पढ़ना एक साथ शुरू किया’..बहुत बार जब वे अपने बचपन में लौटते,तो उनके संस्मरण सुनते सुनते मेरी आंखें भर आतीं..ऐसे ही उन्होंने एक बार बताया, जब वे पांच वर्ष के थे..पुस्तकालय में छात्रों की भीड़ थी..पिताजी पुस्तकें वितरित कर रहे थे तभी चण्डी दत्त किसी आलमारी को खोले..किताबें बेतुकी रखीं थीं जो कपाट के खुलते ही सारी चण्डी दत्त के ऊपर आ गयीं.. चण्डी दत्त दब गये और रोते रोते सो गये’

पिता ने चण्डी दत्त का नाम स्कूल में लिखाया तो पर ना बाप बेटे को छोड़ पाया ना ही बेटा बाप को..चण्डी दत्त कहते, ‘मेरी औपचारिक शिक्षा चल रही थी जिसमें स्कूल नही था’ और शायद यही कारण था कि वे पारंपरिक शिक्षा में अच्छे नही थे..कभी अच्छे मार्क्स नही ला पाये..जिसका उन्हें मलाल भी नही था..अभी पिछले वर्ष ‘अहा जिन्दगी’ में उनका एक जबरदस्त आलेख पढ़ा था ‘नम्बर नही बनाते नम्बर वन’

मैं जब सूचना विभाग में चण्डी दत्त से जब मिला था तब मैं महाविद्यालय से अपनी डिग्री लेकर निकल चुका था पर चण्डी ग्रेजुएशन कर रहे थे..वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे..ऐसे में सभी उन्हें बहुत प्यार करते चाहे वे छात्र हों या गुरुजन..डिग्री कालेज के हीरो थे वे..जब कभी उन्हें मैं छेड़ता तो वे मुस्कराकर कहते ‘दादा, जहां बिना छात्र हुये मैने बीस वर्ष गुजारा है वहाँ अब ग्रेजुएशन करने के दौरान मैं लगभग रंगकर्मी बन चुका हूँ ‘ छात्र राजनीति का शौक चढ़ा.. महाविद्यालय में संयुक्त मन्त्री का चुनाव लड़ा और भारी मत से विजयी हुये..कई कविताएँ तब तक छोटे बड़े अखबारों में छप चुकीं थीं..कहानी ‘नर वाहन’ कादम्बिनी जैसी बड़ी पत्रिका में छप चुकी थी..महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका ‘वागर्थ’ में सहायक सम्पादक के पद पर रहकर गुरुजनों को राहत दे रहे थे..रंग कर्मी भी थे वे और नगर की नाट्य संस्था ‘ज्ञान दीप के अध्यक्ष भी रह चुके थे..(उस समय तक एक टेली फिल्म में काम भी कर चुके थे) उसी समय एक “दीवार पत्र” के सम्पादक भी थे जिससे उनकी पढ़ाई लिखाई, स्वास्थ्य सब कुछ प्रभावित हो रहा था..पर वे मस्त मौला हो जो भी काम आता उसी में भिड़ जाते..भाषण प्रतियोगिता, निबन्ध प्रतियोगिता, डिबेट में वे कालेज स्तर से लेकर स्टेट स्तर तक ईनाम प्राप्त किये थे.. चण्डी दत्त के फन और जुनून से प्रभावित होकर टामसन इण्टर कालेज के प्रवक्ता वा वरिष्ठ पत्रकार सूर्य प्रसाद मिश्र जी ने भाई पर एक फीचर लिखा था जो हिन्दुस्तान अखबार के नेशनल एडिशन पर छपा था..

चण्डी दत्त का परिवार पुरोहिती और पूजा पाठ से जुड़ा था..बाबा भूनेश्वर दत्त शुक्ल गोण्डा शहर के ऐतिहासिक काली भवानी मन्दिर के महन्थ थे और वहीं मन्दिर में रहते भी थे..बाद में चण्डी दत्त के पिता और चाचा यमुना शरण शुक्ल भी पूरे परिवार के साथ मन्दिर परिसर में ही गाँव छोड़कर रहने आ गये..

मायी के मन्दिर के पीछे बने एक छोटे से कमरे में मैं अक्सर चण्डी दत्त से मिलने जाता था..भाई मुझसे उम्र में छोटे थे और मेरा सम्मान करते थे..मैं भी भाई को उनकी प्रतिभा से प्रभावित हो उन्हें वाजिब प्रेम,स्नेह,सम्मान सब करता था..

चण्डी दत्त भले दुनिया भर का प्यार पा रहे थे पर घर पहुँचते ही नितांत अकेले हो जाते..यह रिक्तता भाई को अन्दर अन्दर खोखला कर रही थी..उन्हें खुद याद नही था कि कब वे किताबों से खेलते खेलते किताबें पढ़ने भी लगे..इन किताबों ने ही उन्हें जिन्दगी जीने की ललक पैदा करी..उनकी पूरी गृहस्थी उसी कमरे में थी..किताबें इतनी थीं ,जैसे लगता यह कमरा किसी पुस्तकालय का हिस्सा हो..भाई की एक आदत शुरू से गलत थी..वह कोई भी सामान कभी करीने से नही रखते..पूरा कमरा अस्त व्यस्त रहता..कहीं पैण्ट पड़ी है तो कहीं शर्ट.. कहीं पुस्तकें विखरी हैं तो कहीं थाली लोटा पड़ा है..मैं अक्सर इस बात को लेकर उनसे कहता..’क्या भाई इतने काहिल क्यों हो..?’ वे मुस्कराकर कहते..’दादा ,तुम्हारी भयोहू आयेगी सब ठीक कर देगी..मुझे तो बस ऐसे ही रहने दो..मैं तो ऐसे ही रहूंगा ‘

ऐसे ही एक दिन भाई के कमरे पर पहुंचा तो देखा एक दुबली-पतली सुन्दर सी लड़की बैठी है..मेरे पहुंचने के बाद वह चली गयी..भाई से जब उसके विषय में पूंछा तो भाई बहुत सरलता से बोले..’दादा शायद यह आपकी भयोहू बने ‘
यह मेरी उसकी पहली मुलाकात थी..फिर एक दो बार और ऐसे ही छोटी मोटी मुलाकात हुई..चण्डी दत्त इसी वर्ष हिन्दी से मास्टर डिग्री पा चुके थे..मैने कहा- ‘भाई विवाह कर लो अब’ भाई बोले- ‘बेरोजगारी आड़े आ रही है क्या करुं..?’
यह बात हम सबके गुरुदेव श्री शैलेन्द्र नाथ मि्श्र तक पहुंची..गुरुदेव को भाई की प्रतिभा पर भरोसा था..भाई को भेज दिया अपने एक बड़े पत्रकार मित्र के पास..भाई ‘पंच परमेश्वर’ पत्रिका लखनऊ में वर्ष २००० इसवी में सहायक सम्पादक बने पर महत्वाकांक्षा ने भाई को संतोष से बैठने नही दिया और वे वर्ष २००० में ही सहायक रिपोर्टिंग इन्चार्ज आफ अमर उजाला बनकर रोपड़ पहुँच गये..और फिर चल पड़ी जिन्दगी..जीवन जब कुछ हद तक सुरक्षित हुआ तो भाई को वह दुबली लड़की फिर याद आयी..विवाह की तिथि निश्चित हुई..भाई पहली बार साइकिल से मेरे घर मोकलपुर विवाह का निमंत्रण पत्र लेकर आये थे..

पिताजी ने काली भवानी मन्दिर परिसर में ही एक नया निर्माण कराया था..दूसरी मंजिल पर एक हाल कमरा बनवा रखा था..पिताजी ने अपनी नयी बहू को इसी हाल कमरे में परछा था. भाई की पूरी किताबें, सामान इस लड़की के साथ नये हाल कमरे में आ गया था..भाई एक आध हफ्ते रहे..उस लड़की से हम सबकी कोई विशेष बात चीत या परिचय भी नही हुआ था..लड़की का नाम पूनम है, के अतिरिक्त कुछ विशेष परचय अभी उस लड़की से नही हुआ था कि भाई ने नयी नौकरी का हवाला देकर शहर छोड़ दिया..अब भाई से वर्षों मुलाकात नही होती..पर वे इतने करीब हो चुके थे कि लम्बी लम्बी चिट्ठियां भी पूरी बात कवर नही कर पातीं थीं..हर पन्द्रह दिन पर एक चिट्ठी लिखी जाती..पूनम कहतीं ‘अमृता प्रीतम के प्रेम पत्र फीके पड़ रहे आप लोगों के पत्र के सामने’

भाई अखबार में आये दिन ऊंचाई पर पहुंच रहे थे..वर्ष २००२ में जूनियर सहायक सम्पादक अमर उजाला दैनिक जालंधर से शुरू हुआ उनका सफर चलता रहा.. मुख्य सब एडिटर दैनिक जागरण नोयडा वर्ष २००२ से २००८ , प्रोड्यूसर/एडिटर इन फोकस टीवी नोयडा वर्ष २००८ से २०१० , सीनियर समाचार सम्पादक स्वाभिमान टाइम्स दैनिक दिल्ली २०१०-११, फीचर सम्पादक ‘अहा जिन्दगी’ मासिक जयपुर २०११-१३, फीचर सम्पादक ‘नवरंग साप्ताहिक’ भास्कर समूह २०१३-१६, फीचर सम्पादक ग्लैमर (दैनिक भास्कर) जून २०१६ से दिसम्बर २०१६, फीचर सम्पादक अहा जिन्दगी साप्ताहिक वर्ष २०१७ से मृत्यु दिनांक तक रहे..

वर्तमान समय में मुम्बई में रह रहे थे..मुम्बई में नौकरी के दौरान अमिताभ बच्चन,विनोद खन्ना,प्राण,कादर खान,सलमान खान सरीखे तमाम सैकड़ों बड़े दिग्गज अभिनेताओं अभिनेत्रियों का साक्षात्कार लिया और अपनी पत्रिका में छापा..

इस सबके साथ साथ वे अन्यत्र भी व्यस्त रहे..’खुदी राम बोश’ , ‘गालिब’, ‘आजाद’ मूवी के लिये गीत लिखा..दूरदर्शन राजस्थान के लिये रिसर्च ‘राग रेगिस्तानी’
दिल्ली दूरदर्शन के ‘कला परिक्रमा’ के लिये वर्ष २००८ से २०१० तक फ्री लांस स्क्रिप्ट राइटिंग किया..

पुरस्कारों में-

वर्ष २०११ ‘राजीव गांधी उत्कृष्टता पुरस्कार बेस्ट पत्रकार और हिन्दी शब्द साधक हेतु’

वर्ष २०१२ में परिकल्पना लखनऊ द्वारा बेहतरीन कवि और ब्लागर के लिये

वर्ष २०१३ में परिकल्पना लखनऊ द्वारा ही इन्टरनेशनल ब्लागर आफ द इयर

वर्ष २०१३ में ही मुम्बई में बेस्ट फीचर सम्पादक हेतु ‘आर के एक्सीलेन्स सम्मान’

वर्ष २०१४ में ‘यलो अम्ब्रेला सर्विसेज प्रा०लि० मुम्बई द्वारा ‘बेस्ट फिल्म जर्नलिस्ट आफ द इयर’

वर्ष २०१५ में मुम्बई ग्लोबल अवार्ड समिति द्वारा ‘बेस्ट फिल्म जर्नलिस्ट आफ द इयर २०१५’
इन सबके अतिरिक्त तमाम संस्थानों में बतौर वक्ता उनको लगातार बुलाया जाता रहा..अथर्व ग्रुप आफ इजूकेशनल मलाड के कई कार्यक्रम में जूरी मेम्बर रहे..

चण्डी दत्त की प्रतिभा से प्रभावित हो बाला साहब ठाकरे उन्हें पुत्रवत मानते..दिग्गज हीरो हीरोइन या कला के क्षेत्र में स्थापित लगभग हर व्यक्ति से उनका मित्रों जैसा सम्बन्ध बना..ईश्वर ने दो प्यारी सन्तान भी दी एक लड़का एक लड़की.. वे अक्सर कहते ‘दादा लड़के को क्रिकेटर बनाउंगा और बिटिया को फिल्मों में भेजूंगा..

जीवन में पत्नी, बच्चे, और अपनी रुचि के काम के साथ अब वे बहुत खुश थे..पर पिताजी की मृत्यु के बाद से अपनों ने अपना अपना रंग दिखाना शुरू किया..और भाई अन्दर ही अन्दर खोखले होते गये..फेसबुक पर उनकी एक पोस्ट आयी..’खून के रिश्ते अक्सर खूनी बन जाते हैं’ फोन पर बात करते करते रोने लगते..’दादा अब नही आऊंगा उस शहर में.. बहुत तकलीफ देते हो आप सब’ और फोन काट देते..दो दिन बाद फिर फोन मिलाते..बोलते ‘तुम सब की सुधियां जीने नही दे रहीं..पर कहां आऊं..पिताजी ने जहां उतारा था अपनी बहू को वह तो उन लोगों कब्जा कर रखा है..’
जब मैं कहता कि ‘तुम अपने सम्बन्धों का फायदा क्यों नही उठाते..?’ तो वे बोलते..
‘दुनिया सही बात नही जानेगी..दुनिया कहेगी कि बाप मर गया और ये ईर्ष्या वस रहने नही दे रहे’

भाई तनाव और डिप्रेशन के जबरदस्त शिकार हुये..और तमाम मर्ज पाल लिये..जिस व्यक्ति ने दो दशक तक सक्रिय पत्रकारिता की हो..रंगकर्म, रेडियो, ब्लॉगिंग, डिजिटल स्पेश, और साहित्य में गम्भीर भागीदारी की हो..सिनेमा, संगीत वा संस्कृति सरीखे क्षेत्रों में प्रचुर लेखन किया हो..कई टीवी धारावाहिक, वा फिल्मों के लिये गीत, कहानी, संवाद और स्क्रीन प्ले लेखन किया हो..जिसको जिसके काम से प्रभावित होकर ‘राजीव गांधी उत्कृष्टता पुरस्कार’ से अलंकृत किया गया हो वह व्यक्ति अपनों के रूखे और घिनौने व्यवहार की वजह से अन्दर से बिल्कुल टूट चुका था..और बीमार रहने लगा था..

वह अक्सर अपनी मां को याद करते..उन पर कविता लिखते..

“मां,
मेरी आंखें तुम्हारे जैसी हैं.
बताया था पिता ने एक बार.
तुम भी इतना ही रोती थीं क्या?

दूध के साथ रगों में भर दिए आंसू,
ये तुमने ठीक नहीं किया
क्यों दी ऐसी आत्मा,
जो इतनी जल्दी हारकर बैठ जाती है.

देना था तो लोहा पिघलातीं नसों में,
देती निष्ठुरता,
भूल जाने का साहस…

कुछ तो मंत्र देतीं,
छीन कर पाता कुछ सुख,
सीखता प्रपंच,
बोलता-जीता मैं छल

मां,
जन्म लेते ही मार देना चाहिए था,
सुंदर, कोमल, निश्छल बच्चा
या फिर
जला देतीं इतनी क्रूर दुनिया,
जहां मेरी पनीली आंखों में
लोग भर देते हैं
हर रोज अनगिनत आंसू”

 

फेसबुक पर चण्डी दत्त के स्टेट्स उनकी चुगली करते दिख जाते..कोई पोस्ट देखकर जब उन्हें फोन करता तो वे अक्सर टाल जाते..फेसबुक पर मन की भड़ास तो निकलते पर यदि कोई उससे सम्बन्धित कुछ जानना चाहता तो टाल जाते.. एक दिन उन्होंने स्टेटस डाला

“प्रेमिका से अधिक मां को आवाज देते हुये रोये हो..?
हां, तुम निपट अभागे, अकेले हो यार”

जिस दिन बहुत विचलित होते ,रो पड़ते..मैं भी रोने देता उन्हें.. कभी कभी पूनम फोन करतीं.. “भैया, बात कर लो सागर से..बहुत उदास हैं आज”..चण्डी दत्त ने शुरू में सागर उपनाम से कविता लिखना शुरू किया था पर बाद में हंटा दिया..लेकिन पूनम उन्हें आजतक सागर ही कहती आयीं..

पिछले वर्ष लाक डाउन से पहले उनकी तबियत ज्यादा खराब रहने लगी..लाकडाउन में ढील मिलते ही पूनम उन्हें किसी तरह तैयार करके मुंबई से अपने मायके गोरखपुर ले आयीं..पर भाई ससुराल में अधिक दिन रहने के पक्ष में नही थे..वह अक्सर कहते..’क्या दादा घर जमाई बनवा दोगे..?’ वहाँ कुछ व्यवस्था बनाओ..ससुराल में पूरा सम्मान मिलने के बावजूद भाई किसी भी तरह नही रुकना चाहते थे..और जिद करके अपने शहर आ गये..पारिवारिक विवाद के चलते नगर मजिस्ट्रेट , कोतवाली नगर , कचहरी आदि जगह भाई को परिवार के साथ भटकना पड़ा जो उन्हें असहनीय लगा..जिस हाल कमरे में पिताजी ने पूनम को उतारा था उस हाल कमरे का कुछ भाग भाई को बड़ी जद्दोजहद के बाद मिला..तुरंत लाखों खर्च करके एल्युमिनियम पार्टीशन कराया गया और भाई रहने लगे..

लगभग बीस वर्षों बाद इस बार पहला अवसर था जब भाई के साथ पहले जैसी बैठकी होने लगी..पूनम को मैने पहली बार इतने करीब से देखा..इतनी सेवा शायद ही कोई महिला करती हो..मैं तो अब अक्सर उससे कहने लगा था ‘अनसुइया,मन्दोदरी,अहिल्या,
सुलक्षणा,द्रौपदी के बाद अब मैं तुम्हारा नाम लेता हूँ ‘ वह हंसकर रह जाती..

भाई ने कई बार पुनः वापस मुम्बई जाने का मन बनाया पर हम लोग देख रहे थे कि तबियत सही नही है..उन्हें रोंकते तो वे इस बार तुरंत मान भी जाते.. यहीं से अपनी नौकरी वर्क फ्राम होम कर रहे थे..एक दिन मैं जैसे ही पहुंचा ,भाई बोले..’दद्दा आपके फोन में रिकार्डिंग ठीक से होती है न..? मेरा फोन डिस्टर्व है..माधुरी दीक्षित का इण्टर व्यू करना है पत्रिका के लिये..समय भी ले रखा है ”
मैने हंस कर कहा ‘एक शर्त पर दूंगा..इण्टर व्यू के बाद आप उसे मेरे फोन में भी रहने देंगे..’ भाई बोले, डन पर एक निवेदन है कि जब तक इण्टर व्यू पत्रिका में छप नही जाता उसे आप अपने तक ही सीमित रखेंगे’

भाई सब कुछ कर रहे थे पर अपने लिये कुछ नही..देश के जो बड़े प्रकाशन हैं, से चण्डी दत्त के बड़े अच्छे सम्बन्ध थे..कई बार इन जगहों से भाई से किताब मांगी गयी कि लाओ छाप दूं..भाई टाल जाते, बोलते- ‘लिखूंगा तब छाप देना ‘

एक दिन भाई ने कहा , ‘दादा तीन कहानी फटाफट लिखो..तीन बड़े प्रकाशन से एक एक कहानी संग्रह सोच रहा हूँ निकल जाये अब..आप को लेकर दस कथाकारों से बोल दिया है..थोड़ा ठीक हो जाऊं बस तीन संग्रह एक साथ आ जायें ‘

चण्डी दत्त पढ़ते बहुत थे..लिखना होता तो अलसा जाते..वह अक्सर कहते..’सब लिखना ही क्यों चाहते हैं.. फिर पढ़ेगा कौन..?”
लेकिन जब कोई नजदीकी मित्र लिखने को आदेशित करे तो वन सिटिंग में लिखकर खत्म भी कर देते थे..उन्होंने बताया था..’हिन्दुस्तान अखबार की एक्जीक्यूटिव एडिटर वा वरिष्ठ साहित्यकार जयंती रंगनाथन जी के कहने पर मातृभारती के एम बी प्रकाशन के लिये कहानी “हम फिर मिलेंगे” लिखा था..मातृभारती के ही लिये कहानी “फिर आना अखिलेश और हंसना” भी लिखा..

चण्डी दत्त का व्यक्तित्व बड़ा चुम्बकीय था..वर्ष १९९५ में चक्रधर द्विवेदी को गाँव मोकलपुर में कवि सम्मेलन कराने का मन बना..चक्रधर के साथ मैं भी आयोजक था..पैसा किसी के पास नही था..चण्डी दत्त ने फ्री में पांच कवि लाने की जिम्मेदारी ली..यह उनका जादुई व्यक्तित्व था कि उनके कहने मात्र से उनसे बहुत वरिष्ठ और योग्य कवि चाहे वे नारायण जी शुक्ल रहे हों..चाहे सुरेन्द्र सिंह झंझट..चाहे डाक्टर शैलेन्द्र नाथ मिश्र या फिर अनुज विश्वदीपक त्रिपाठी..ये सभी आये..मंच पर चण्डी दत्त का पहला उद्बोधन आज तक गाँव वालों के जुबान पर है..चण्डी दत्त ने कहा “जैसे काश्मीर भारत का स्वर्ग है वैसे ही गोण्डा का स्वर्ग यह गाँव मोकल पुर है” इस एक स्टेटमेंट से चण्डी दत्त छा गये थे..

भाई इधर रोज एक नियम बनाते..१-स्वास्थ्य २ परिवार को समय ३- लेखन और प्रकाशन ४- एक छोटा सा घर ५- मित्रों से गपसप
पर उनकी निराशा उनके फेसबुक प्रोफाइल से पता चल जाती..अजीब अजीब पोस्ट डालते..कोई अगर कुछ पूछ बैठे तो पिल पड़ते..बहुत चिड़चिड़े हो गये थे..स्वभाव से वे वैसे भी बहुत तैलीय कभी नही रहे.. एक बार वरिष्ठ साहित्यकार देवनाथ जी से भाई के विषय में बात हो रही थी तो देवनाथ जी ने बताया ‘अपने क्षेत्र की भाषा में कहूं तो चण्डी दत्त बहुत खरखर हैं’

मेरा स्वयं ही उनसे फेसबुक पर एक पोस्ट को लेकर वर्ष २०१५ में झगड़ा हुआ..और लगभग दो वर्ष तक बोलचाल बन्द रही..फिर अचानक एक दिन चण्डी दत्त का फोन आया..”दादा मैं गोण्डा में हूँ.. आप कहां हैं..? ”
दो वर्ष बीत गया था मैं स्वयं लालायित था मिलने को..

चण्डी रूढ़ नही थे सिद्धांत वादी थे..इसलिये बिना लाग लपेट के बोल देते थे जिससे कुछ व्यक्ति उन्हें कुंठित कहने लगे थे..पर इसका उन्हें कोई मलाल नही था..वे फक्कड़ जीवन जी रहे थे जहां दया,ममता,आदर्श सब कुछ था पर चाटुकारिता नही थी..और ऐसे ही मित्रों को पसंद भी करते थे..मैने इतने वर्षों उनसे एक भी बार यह नही कहा कि दुनिया को छापते हो ,मेरी भी कोई कहानी, कविता छाप दो..इसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने एक दिन मुम्बई से फोन आया..”दादा पूनम कह रही थीं कि राजेश भैया की फलां कहानी बहुत अच्छी है..क्यों नही छापते अपने यहाँ. ”

मैं हंसकर बोला..” फिर आपने क्या कहा..?”

“वही जो सच है..दादा ने कभी मुझे अपनी कोई कहानी छापने के लिये या पढ़ने के लिये भेजी ही नही..”

“तो..?”

“तो यह कि क्यों नही भेजते..?

” सिर्फ इसलिये कि आपको पता है कि मैं कहानियाँ लिखता हूँ और पूनम के वाट्सैप पर भेजता भी हूँ ..मैं सोचता था ,आप उनके अकाउंट पर पढ़ते अवश्य होंगे..जब कोइ कहानी आपकी पत्रिका के स्तर की होगी तो आप स्वयं छाप देंगे ”

“आप बहुत भोले और संकोची हैं दादा..फिलहाल भेजिये” कहकर फोन काट दिया..

चण्डी दत्त इस बार जबसे मुम्बई से आये थे मैं, विश्वदीपक त्रिपाठी लगभग रोज बैठकी करते..कभी कभी शैलेन्द्र सर आ जाते..उनका भी मन बहला रहता..पर इधर मृत्यु से कुछ समय पूर्व मैं कोरोना से संक्रमित हो गया और मेरा भाई के पास जाना बन्द हो गया..अचानक ११ मई को पंखुरी का फोन आया..’बड़े पापा जल्दी आइये और कोई बड़ा डाक्टर लाइये..पापा बोल नही रहे हैं ‘ मैं स्तब्ध.. फोन काटकर अलग से स्थिति पता किया..पता चला भाई नही रहे.. सब कुछ समाप्त हो चुका था..कच्ची गृहस्थी..दो छोटे छोटे बच्चे.. वह सीधी साधी इन्नोसेन्ट लड़की पूनम कैसे सम्हालेगी बच्चों को..मेरी हिम्मत बच्चों से या पूनम के सामने जाने की नही हो पा रही थी..सोचता था क्या ढांढस दूंगा..

अचानक से सब कुछ स्थिर हो गया..दो छोटे छोटे बच्चे.. कच्ची गृहस्थी.. कैसे क्या होगा..मैं ना तो कुछ बोल पा रहा था..ना कुछ सोच पा रहा था कि अचानक से वरिष्ठ व्यंग्यकारा अर्चना चतुर्वेदी का फोन आया..”यह चण्डी के विषय में मैं क्या सुन रही हूँ.. एक ने फेसबुक पर अभी पोस्ट डाली है..यह गलत है ना..?”
क्या कहता मैं.. धीरे से बोला -“भाई नही रहे मैम”

भाई में जबरदस्त प्रतिभा थी और भाषा पर अद्भुत नियंत्रण था..लेकिन खुद बहुत कम लिखा..तमाम बड़े साहित्यकारों की पुस्तकों की समीक्षा किताब गली में लिखते रहे..तमाम फिल्मी हस्तियों का इण्टर व्यू किया..पर अपनी पुस्तक पर अलसा जाते..बोलते लिख लूंगा दद्दा अभी पूरी जिन्दगी पड़ी है..

भाई से जुड़े संस्मरण यदि लिखे जायें तो कई खण्ड का उपन्यास तैयार हो जाये..चण्डी, तुमको पूरा लिख पाना बहुत मुश्किल है दोस्त..मैं बस यही कहूंगा..’तुम मेरी हर सांस में हो’

राजेश ओझा

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