बंदा – रंगो के त्योहार होली में सिर्फ 2 दिन ही बचे हैं और यूं तो पूरे देश में ही होली का पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है लेकिन उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र और बांदा में इस रंगीले त्यौहार की बहार ही कुछ अलग अंदाज में देखने को मिलती है, यहां फागुन माह शुरू होते ही गांव की चौपालों पर लोग रंगों से सराबोर होकर बुंदेली फाग की धुन पर झूमते नाचते नजर आते हैं। बसंत से लेकर होली तक फाग की धुन पर रंग खेलते थिरकते और मदमस्त होकर नाचते लोगों को आप देख सकते हैं। बुंदेलखंड के झांसी जनपद के मऊरानीपुर कस्बे के पास मेढकी गांव में जन्मे जनकवि ईश्वरी के रचित बुंदेलखंडी फाग के यहां के लोग दीवाने हैं, होली के रंग में फाग गायन की मस्ती यहां होली की खुशियों में चार चांद लगा देती है। होली के मौके पर बुंदेलखंड के बांदा से देखिए यहां की अनूठी लोकगीत संस्कृति फाग गायन….
यह बुंदेलखंड का बांदा है जहां फागुन के महीने से होली तक गांव की चौपालों में बुंदेली फाग की अनोखी महफिले सजती हैं रंगों की बौछार के बीच गुलाल अबीर से सराबोर चेहरों वाले फगुआरो के होली गीत यानी फाग जब वातावरण में गूंजते हैं तो मानो श्रंगार रस की बारिश की अनुभूति होती है । सारा दिन खेतों में मेहनत करके शाम ढलते ही यहां ग्रामीणों में गुलाल अबीर और रंगों की फुहारों के बीच चौपालों में फाग के दीवाने अपनी महफिल सजा लेते हैं। ढोलक मजीरा तबला जैसे यंत्रों के साथ मदमस्त होकर यहां फाग गाया जाता है और मदमस्त किसानों के बुंदेलखंडी होली गीत फाग गाने का अंदाज इतना अनोखा और जोशीला होता है कि इसे सुनने वाला भी मस्ती में चूर होकर थिरकने और नाचने पर मजबूर हो जाता है। बांदा में फाग के कार्यक्रम लगातार जारी हैं और इसी फाग गायन के बीच सरकार के अच्छे कामों का भी बखान किया जा रहा है। आज से तकरीबन डेढ़ सौ साल पहले बुंदेली कवि ईश्वरी ने फाग की 16 विधाओं का आविष्कार किया जाता था बदलते वक्त के साथ अब यहां 8 तरह की फाग की विद्या प्रयोग की जाती है। जिनमें जंगला, पारकी, फाग, चौकड़िया, ढहक्वा, अधर की फाग, सिंहावलोकन और छंददार फाग शामिल हैं। इन फागों में हंसी ठिठोली के गीत, कृष्ण और राधा के प्रसंग, राम के गीतों को भी गाया जाता है।
वही होली के बारे में मनोवैज्ञानिक जनार्दन त्रिपाठी बताते हैं कि होली का पर्व दरअसल होरी के नाम से जाना जाता था और आज भी होली खेलने वालों को ब्रज में होरियारा बुलाया जाता है। जनार्दन त्रिपाठी के मुताबिक होली में गोबर और कीचड़ डालने का रिवाज था जो पूरी तरह चिकित्सा विज्ञान से प्रेरित था क्योंकि आज मड थेरेपी और गोबर थेरेपी का प्रचलन बढ़ा है जबकि होली में बुंदेलखंड में इस थेरेपी को पहले से किया जाता रहा है। जनार्दन त्रिपाठी के मुताबिक ब्रज की लठमार होली बुंदेलखंड के लठ से ही शुरू हुई है, जनार्दन त्रिपाठी के मुताबिक होली में उपले जलाए जाते थे जो पर्यावरण को स्वच्छ करने का काम करते हैं इसके साथ ही होली में पेड़ों का वेस्ट मटेरियल जलाया जाता था इसलिए होली का पर्यावरण के लिहाज से भी यह खास महत्व है।