अनुदानित विद्यालय पर लेकर छिड़ा विवाद हकीकत में कौन-कौन है जिम्मेदार

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गोंडा जनपद में इन दिनों बेसिक शिक्षा विभाग एक बड़े विवाद के केंद्र में है। जिले के 29 अनुदानित विद्यालयों में हुई 688 शिक्षकों की नियुक्ति का मामला तेजी से सुर्खियों में है। मीडिया रिपोर्ट्स ने इन विद्यालयों को सीधे तौर पर “भ्रष्टाचार का अड्डा” करार दिया है। हर टीवी चैनल, हर पोर्टल, हर अखबार एक ही सुर में इन नियुक्तियों को लेकर सवाल उठा रहा है, मानो पूरा सच उनके पास ही हो। मगर इस पूरी रिपोर्टिंग में एक अजीब सी ‘भेड़ चाल’ नज़र आती है—जैसे सभी ने बिना पूरी पड़ताल किए बस एक लाइन पकड़ ली हो: “सब कुछ फर्जी है।”

इस पूरे मामले में एक नाम विशेष रूप से उछाला जा रहा है—लिपिक अनुपम पांडे। उन्हें इस पूरे नियुक्ति प्रकरण का “मुख्य दोषी” बताया जा रहा है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या एकमात्र लिपिक 29 विद्यालयों में 688 नियुक्तियों को अकेले अंजाम दे सकता है? क्या बिना उच्चाधिकारियों की सहमति, बिना प्रबंध समितियों की मिलीभगत, और बिना राजनैतिक संरक्षण के इतनी बड़ी संख्या में नियुक्तियाँ संभव थीं? फिर क्यों अनुपम पांडे को ही ‘बली का बकरा’ बनाया जा रहा है?

सूत्र बताते हैं कि यदि इस मामले की निष्पक्ष, स्वतंत्र और व्यापक जांच की जाए तो कई प्रभावशाली चेहरे—विधायक, मंत्री और उच्च अधिकारी भी इसकी जद में आ सकते हैं। शायद यही वजह है कि कुछ लोग ‘बोलने’ से बच रहे हैं और सच को दबाकर सिर्फ एक लिपिक को कुर्बानी का पात्र बनाया जा रहा है।

गोंडा के शिक्षा जगत में यह कोई पहला मामला नहीं है जब अनियमितताओं की बात सामने आई हो, लेकिन इस बार का पैमाना बड़ा है। जनता, अभिभावक और योग्य शिक्षकों में रोष है कि कैसे पैसों और सिफारिशों के दम पर नौकरियाँ बांटी जा रही हैं, और योग्य अभ्यर्थी दर-दर भटकने को मजबूर हैं।

मीडिया की भूमिका भी इस मामले में सवालों के घेरे में है। क्या पत्रकारिता सिर्फ सनसनी फैलाने और ‘न्यूज़ TRP’ बटोरने तक सीमित हो गई है, या फिर किसी खास दिशा में मोड़ दी गई है? सच्चाई यह है कि बिना नाम लिए, कई ‘बड़े चेहरे’ इस भर्ती घोटाले के पीछे हैं, लेकिन फिलहाल परदे के पीछे हैं।

ऐसे में ज़रूरत है एक निष्पक्ष न्यायिक या सीबीआई जैसी स्वतंत्र जांच की, जिससे न केवल अनुपम पांडे जैसे छोटे कर्मचारियों को न्याय मिल सके, बल्कि भ्रष्टाचार की जड़ों तक पहुंचा जा सके। क्योंकि अगर सच्चाई सामने आई, तो शायद बहुत से ‘सम्माननीय चेहरे’ बेनकाब हो जाएंगे।

और शायद इसी डर से… कुछ लोग चुप हैं… और चुप ही रहना चाहते हैं।

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