फटते बादलों और दरकते पहाड़ों के भंवर में 5 करोड़ भारतीय

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Mandi: Rescue operation underway to trace the missing people at an affected area of Rajvan village

फटते बादलों और दरकते पहाड़ों के भंवर में 5 करोड़ भारतीय
हिमालय एक पर्वतीय श्रृंखला है। ये भारतीय उपमहाद्वीप को मध्य एशिया और तिब्बत से अलग करता है। ये श्रृंखलाएं तीन समानांतर श्रेणियों में विभाजित हैं। महान हिमालय, मध्य हिमालय और शिवालिक। इनका विस्तार 2500 किलोमीटर तक है। इसका उभार दक्षिण की ओर अर्थात उत्तरी भारत के मैदान की ओर है और केन्द्र तिब्बत के पठार की ओर है। इन तीन मुख्य श्रेणियों के आलावा चौथी को उत्तरी श्रेणी में परा हिमालय या ट्रांस हिमालय कहा जाता है जिसमें कराकोरम तथा कैलाश श्रेणियां शामिल हैं। हिमालय पर्वत 7 देशों की सीमाओं में फैला हैं, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भारत, नेपाल, भूटान, चीन और म्यांमार तक। संसार की अधिकांश ऊंची पर्वत चोटियां हिमालय में ही स्थित हैं। विश्व के 100 सर्वोच्च शिखरों में हिमालय की अनेक चोटियां हैं। विश्व का सर्वोच्च शिखर माउंट एवरेस्ट हिमालय का ही एक शिखर है। हिमालय में 100 से ज्यादा पर्वत शिखर हैं जो 8848.86 मीटर से ऊंचे हैं। हिमालय के कुछ प्रमुख शिखरों में सबसे महत्वपूर्ण सागरमाथा हिमाल, अन्नपूर्णा, शिवशंकर, गणेय, लांगतंग, मानसलू, रॊलवालिंग, जुगल, गौरीशंकर, कुंभू, धौलागिरी और कंचनजंघा है। हिमालय श्रेणी में 15 हजार से ज्यादा हिमनद हैं जो 12 हजार वर्ग किलॊमीटर में फैले हुए हैं। 72 किलोमीटर लंबा सियाचिन हिमनद विश्व का दूसरा सबसे लंबा हिमनद है। हिमालय से निकलने वाली  सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र और यांगतेज नदियां भी शामिल हैं। हिमालय क्षेत्र में ही हरिद्वार, बद्रीनाथ, केदारनाथ, गोमुख, देव प्रयाग, ऋषिकेश, कैलाश, मानसरोवर तथा अमरनाथ, शाकम्भरी प्रमुख धार्मिक स्थल हैं।
धार्मिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक मान्यताओं से घिरे पर्वतीय क्षेत्र में बार-बार बादल फटना, भूस्खलन होना, ग्लेशियरों का पिघलना कोई आम या सामान्य घटनाएं नहीं हैं। हिमाचल और उत्तराखंड में इस बार जिस तरह की लगातार घटनाएं हुई हैं वे सोचने को मजबूर कर रही हैं। हिमाचल में इस बार 40 बार बादल फटने की घटनाएं हो चुकी हैं। वर्ष 2013 में यहां सिर्फ 27 बार बादल फटने की घटनाएं हुई थीं, जबकि 2024 में केवल 12 बार। 20 जून से अब तक 2350 करोड़ का नुकसान हो चुका है। इसी तरह उत्तराखंड के केदार घाटी, देहरादून और अब चमोली में बादल फटने तथा भूस्खलन ने और भी चिंतित कर दिया है। चमोली के नंदा नगर में बादल फटने से कई घर मलबे में दब गए, लोग लापता हो गए। देहरादून के तपोवन सहित कई हिस्सों में जलभराव और मलबा घरों में घुस गया। केदार घाटी में एक पूरा गांव मलबे के नीचे दफन हो गया। हालात फिर से 2013 की याद दिला रहे हैं, जब मंदाकिनी नदी में आई बाढ़ ने हजारों जिंदगियां लील ली थीं। यहां यह मानना भूल होगी कि यह सब केवल जलवायु परिवर्तन का असर है। सच्चाई यह है कि हमने विकास की दौड़ में पहाड़ों की आत्मा को ही खोखला कर दिया है। सरकारें विकास के नाम पर सड़कें, बांध और होटल बनाती हैं। यह सब पर्यटन और सुविधा के लिए जरूरी बताया जाता है। लेकिन यह “विकास” कितनी कीमत पर? जब हर बरसात के मौसम में गांव बह जाते हैं, लोग मारे जाते हैं और अरबों का नुकसान होता है, तो हमें सोचना होगा कि क्या यह विकास सचमुच हमें आगे ले जा रहा है या हमें तबाही के मुहाने पर खड़ा कर रहा है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट ने एक हालिया विश्लेषण में हिमालयी राज्यों में स्वच्छता प्रणालियों की गंभीर स्थिति पर प्रकाश डाला है। स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण के दिशा-निर्देशों के अनुसार, प्रत्येक पहाड़ी शहर में प्रति व्यक्ति लगभग 150 लीटर पानी की आपूर्ति की जाती है। चिंता की बात यह है कि इस जल आपूर्ति का लगभग 65-70 प्रतिशत अपशिष्ट जल में परिवर्तित हो जाता है। उत्तराखंड में केवल 31.7 प्रतिशत घर सीवरेज सिस्टम से जुड़े हैं, जिस कारण अधिकांश लोग ऑन-साइट स्वच्छता सुविधाओं (एक स्वच्छता प्रणाली जिसमें अपशिष्ट जल को उसी भू-खंड पर एकत्रित, संग्रहीत और/या उपचारित किया जाता है जहां वह उत्पन्न होता है) पर निर्भर हैं। घरों और छोटे होटल दोनों ही द्वारा बाथरूम एवं रसोई से निकलने वाले गंदे जल के प्रबंधन के लिये अक्सर सोखने वाले गड्ढों (Soak Pits) का उपयोग किया जाता है। कुछ कस्बों में खुली नालियों से गंदे जल का अनियमित प्रवाह होता है, जिससे इस जल का अधिक रिसाव ज़मीन में होने लगता है। हिमालयी क्षेत्र की मृदा की संरचना, जिसमें चिकनी, दोमट और रूपांतरित शिस्ट, फिलाइट एवं गनीस शैलें शामिल हैं, स्वाभाविक रूप से कोमल होती है। विश्लेषण के अनुसार, जल और अपशिष्ट जल का ज़मीन में अत्यधिक रिसाव, मृदा को नरम/कोमल बना सकता है जिससे भूस्खलन की संभावना अधिक होती है।
भारतीय हिमालयी क्षेत्र के 13 राज्यों के सामने चुनौतियां
भारतीय हिमालयी क्षेत्र में जम्मू-कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नगालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा, असम और पश्चिम बंगाल के भूभाग स्थित हैं।  2500 किलीमोटर तक इनका विस्तार है। इस क्षेत्र में लगभग 50 मिलियन लोग रहते हैं, विविध जनसांख्यिकीय और बहुमुखी आर्थिक, पर्यावरणीय, सामाजिक तथा राजनीतिक प्रणालियां इन क्षेत्रों की विशेषताएं हैं। ऊँची चोटियों, विशाल दृश्यभूमि, समृद्ध जैवविविधता और सांस्कृतिक विरासत के साथ भारतीय हिमालयी क्षेत्र लंबे समय से भारतीय उपमहाद्वीप एवं विश्व भर से आगंतुकों तथा तीर्थयात्रियों के लिये आकर्षण का केंद्र रहा है।

अब बचाव व घोषणाओ से आगे बढ़ने का समय 

अब समय आ गया है कि हम केवल राहत और बचाव की घोषणाओं से आगे बढ़ें। पारिस्थितिकी आधारित विकास मॉडल अपनाना होगा। हर सड़क और बांध के प्रोजेक्ट से पहले पर्यावरणीय प्रभाव का गहन आकलन अनिवार्य हो। आपदा पूर्व चेतावनी तंत्र को और मजबूत करना होगा। ग्रामीणों और यात्रियों तक त्वरित सूचना पहुंचाने की व्यवस्था हो। स्थानीय समुदायों को आपदा प्रबंधन में शामिल करना होगा। वे न केवल पीड़ित हैं बल्कि समाधान का हिस्सा भी बन सकते हैं। पर्यटन पर नियंत्रण जरूरी है। संवेदनशील इलाकों में पर्यटक संख्या सीमित करनी होगी। वन संरक्षण और हरित आवरण बढ़ाना अब विलासिता नहीं, बल्कि अस्तित्व का सवाल है।

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