हिंदी भाषा बनाम राजनीति जंग

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हिन्दी और दक्षिण भारत : भाषा बनाम राजनीति की जंग

Raj mangal singh

14 सितम्बर को जब पूरा देश हिन्दी दिवस मना रहा होता है, उसी समय दक्षिण भारत के कई हिस्सों में हिन्दी को लेकर उथल-पुथल और विरोध के स्वर भी सुनाई देते हैं। प्रश्न उठता है कि आखिर एक भाषा, जो करोड़ों भारतीयों की जुबान है, वह दक्षिण के राज्यों में विवाद का कारण क्यों बन जाती है?
दक्षिण भारत की भाषाएँ—तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम—अपनी समृद्ध परंपरा, साहित्य और इतिहास पर गर्व करती हैं। तमिल जैसी भाषा को शास्त्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त है। तमिल और हिन्दी दोनों भाषाओं की जननी है और दोनों की अपनी स्वीकार्यता है। दक्षिण भारत के लिए खासकर तमिलनाडु के लिए भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि संस्कृति और पहचान का प्रश्न है। यही कारण है कि हिन्दी के बढ़ते प्रभाव को वे कई बार अपनी भाषाई अस्मिता के लिए चुनौती मानते हैं।
झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड सहित अन्य प्रांतों में हिंदी भाषा बोली जाती है और स्वीकार्यता है। इसके अलावा पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र में वहां की समृद्ध संस्कृति और भाषाएं हैं फिर भी संवाद के लिए हिन्दी की स्वीकार्यता है। यही कारण है कि
संविधान ने हिन्दी को राजभाषा और अंग्रेज़ी को सहायक भाषा का दर्जा दिया। तमिल को शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिला है। लेकिन जब-जब केन्द्र सरकार के स्तर पर हिन्दी को “पूरे भारत की भाषा” बताने की कोशिश हुई, दक्षिण भारत में विरोध भड़का। आशंका यह रही कि हिन्दी थोपे जाने पर नौकरशाही, शिक्षा और रोज़गार में क्षेत्रीय भाषाएँ पीछे छूट जाएंगी। सच यह है कि हिन्दी विवाद का सबसे बड़ा पहलू राजनीतिक है। 1960 के दशक में तमिलनाडु में हुए हिन्दी-विरोधी आंदोलन से द्रविड़ पार्टियों को सत्ता में उभरने का मौका मिला। तब से लेकर आज तक, चुनावी राजनीति में हिन्दी का मुद्दा समय-समय पर उठाया जाता है। यह विरोध ज़्यादा भावनात्मक और राजनीतिक है, जबकि व्यवहारिक स्तर पर स्थिति कुछ और है। वास्तव में दक्षिण भारत में हिन्दी की स्वीकार्यता लगातार बढ़ रही है। सिनेमा, टीवी, गाने और सोशल मीडिया ने हिन्दी को घर-घर पहुँचा दिया है। पर्यटन, व्यापार और रोज़गार की दृष्टि से भी स्थानीय लोग हिन्दी सीखने और बोलने लगे हैं। सच्चाई यह है कि हिन्दी अब धीरे-धीरे संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार हो रही है, भले ही राजनीति इसे विवाद का विषय बनाए रखे।
कुल मिलाकर भाषा किसी पर थोपी नहीं जा सकती, वह तो प्रयोग और स्वीकार्यता से जीवित रहती है। हिन्दी का विरोध तभी शांत होगा जब इसे थोपने की बजाय सेतु भाषा के रूप में प्रस्तुत किया जाए। भारत की ताकत उसकी भाषाई विविधता है, और हिन्दी तभी सफल होगी जब वह इस विविधता का सम्मान करते हुए संवाद का पुल बने, न कि वर्चस्व का प्रतीक।

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